Thursday 29 June 2017

Geetanjali

#चालीस_पार

सुनो....प्रिये..... क्या संभव है
फिर से तुमसे प्यार करना
वो रात औ दिन को जीना
माना, अब वो खिंचाव ना
होगा मेरे अंदर, जो तुम्हे
बांधे रखता था पल पल
प्यार की गलिओं से निकल, अब भटक रही हूँ
गृहस्थी की गलिओं में।
याद आता है, तुम्हारा वो शरारत से देखना
देख कर मुस्काना, कनखियों से इशारा कर
बात बात पर छेड़ना
सिहर जाती थी मैं अंदर तक...
फिर से करना चाहती हूँ तुम से प्यार
क्या हुआ जो हम तुम ही गये चालीस पार....
मेरे प्यार मतलब नहीं है, मात्र सहवास
तुम्हे सामने बैठा कर निहारना चाहती हूँ
घंटो बाते करते रहना चाहती हूं
रूठते , मनाते हुये, फिर से
देखना चाहती हूँ, तुमको हँसते हुए।
जीना चाहती हूँ तुम में,
तुम को जीते हुए।
ये आवाज़ की तल्ख़ी
जिम्मेदारियों से है,
उलझे बाल, सब की तिमारदारियो से है
इससे तुम ना यू नजरे चुराओ
है आकर्षण आज भी, जो जागा था
पहली बार तुम को देख कर
घर में राशन पानी भरती हूं,
पर आत्मा से रोज भूखी सोती हूँ।
साथ व स्पर्श के लिए बैचेन रहती हूँ
माना, तुम अपने काम में हो मशगुल
व्यस्तता का मतलब नहीं है
लापरवाही, ये मैं जानती हूँ
मुझे चाहिए मात्र तुम्हारा साथ
नोकझोंक औ पहले सी मनुहार
रूठने पर मनाना, न मानने पर
तुम्हार प्रणय निवेदन करना
बहुत याद आता है.....
लौटा दो मुझे फिर से मेरा संसार
आओ....ना.... प्रिये.......
फिर से कर ले हम पहला प्यार
क्या हो गया जो हो गए हम चालीस पार........

Monday 26 June 2017

बस्ती

#बस्ती

सुनती हूँ मैं, लोगो को ,
उनकी अनगिनत चीखों में
दर्द से भरी, मरणांतक रूपो में
कुरेदती जमीं, ज़मीर ढांक रही है
भाई भाई की कब्र काट रही हैं
रिश्तों की सीलन बढ़ती जा रही है
है ....कुछ तो तुझ में और मुझ में
जो सबको दरिंदा बना रही है
छीलते पेड़ो की छाल देख कर
सहम जाती हूं लड़की की
खुलती छाती देख कर
निर्जीवों सी क्यों कर ये हवा हैं
अपनों पर बैठा ये कैसा दरिंदा हैं
ये कैसा बदबूदार बाज़ार खड़ा है
यहाँ हर कोई स्त्री का दलाल खड़ा है
कोख़ का सफर पूरा कर वो बाहर आती
पर पग पग खड़े भेडियों से नहीं बच पाती
बाप,बेटा, माँ, सब क़ातिल खड़े है
कौन गढ़ता है ये समाज, क्या मुर्दे खड़े है
क्यों मजबूरों की इतनी बस्ती हैं
जिस्मो के सौदों में मानवता
क्या इतनी सस्ती है
लहू बहता है अब अश्क़ो से
हर पहचान धुंधली लगती है
कौन अपना, कौन फ़रेबी है
चारों ओर वहशियों की बस्ती है
क्या योनि और छाती इतनी सस्ती हैं।

#Geetanjali

Thursday 22 June 2017

बेहया के फूल

#बेहया_के_फूल

कुछ फूलों में होते है बेहया के फूल भी
जो दिखते है हरदम
गांव बाहर
उस गली के कोने से,
जो उपेक्षित है सभ्य समाज में,
बेहया के वो फूल
खो चुके है अपनी खुशबु
अनवरत रगड़ खाते खाते
बदलते सालो में वो बढ़ते गए
बिना खाद पानी के
जैसे बढ़ती है खरपतवार
रोज काली रात में, उस गली की कोख़ में
रोपे जाते है अतृप्त वजूद के तृप्ति के बीज
खिल जाता है एक और बेहया का फूल
हर कोई देखता है उस ओर, पर ठहरता कोई नहीं
वो न देवता के लिए है, ना है किसी शुभता के लिए
वो तो बने है हर रात के लिए
बिना भाव व स्पंदन के बिछ जाने के लिए
रात आती है रोज उस गली में
अपने नंगेपन के साथ ,
उसे और नंगा कर जाती है
बेहया पैदा होते है रात में,
फिर तिल तिल मरते भी है हर रात में
शाम होते ही वो बेहया के फूल खिल जाते है झुंडों में
अपने नए ग्राहक के इंतज़ार में........

#Geetanjali
21/6/2017