Monday 26 June 2017

बस्ती

#बस्ती

सुनती हूँ मैं, लोगो को ,
उनकी अनगिनत चीखों में
दर्द से भरी, मरणांतक रूपो में
कुरेदती जमीं, ज़मीर ढांक रही है
भाई भाई की कब्र काट रही हैं
रिश्तों की सीलन बढ़ती जा रही है
है ....कुछ तो तुझ में और मुझ में
जो सबको दरिंदा बना रही है
छीलते पेड़ो की छाल देख कर
सहम जाती हूं लड़की की
खुलती छाती देख कर
निर्जीवों सी क्यों कर ये हवा हैं
अपनों पर बैठा ये कैसा दरिंदा हैं
ये कैसा बदबूदार बाज़ार खड़ा है
यहाँ हर कोई स्त्री का दलाल खड़ा है
कोख़ का सफर पूरा कर वो बाहर आती
पर पग पग खड़े भेडियों से नहीं बच पाती
बाप,बेटा, माँ, सब क़ातिल खड़े है
कौन गढ़ता है ये समाज, क्या मुर्दे खड़े है
क्यों मजबूरों की इतनी बस्ती हैं
जिस्मो के सौदों में मानवता
क्या इतनी सस्ती है
लहू बहता है अब अश्क़ो से
हर पहचान धुंधली लगती है
कौन अपना, कौन फ़रेबी है
चारों ओर वहशियों की बस्ती है
क्या योनि और छाती इतनी सस्ती हैं।

#Geetanjali

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